Chandra Gehna Se Lautti Ber MCQ चंद्र गहना से लौटती बेर MCQ Class 9 Hindi Kshitij Chapter 14
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चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का भावार्थ अर्थ
देख आया चंद्र गहना |
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला |
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सजकर खड़ा है |
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सर पर चढ़ा कर
कह रही, जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको |
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि केदारनाथ अग्रवाल जी के द्वारा रचित कविता चंद्र गहना से लौटती बेर से उद्धृत हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि के द्वारा ग्रामीण परिवेश और खेत-खलिहान का सुंदर चित्रण किया है तथा चना और अलसी के पौधे का अद्भुत मानवीकरण किया गया है | कवि कहते हैं कि वे 'चंद्र गहना' नामक गाँव देखकर आ गए हैं | लौटते हुए जब वे खेत के मेड़ पर बैठकर आस-पास के प्राकृतिक दृश्य पर अपनी दृष्टि डालते हैं, तो उन्हें खेतों में लगे चने के पौधे दिखाई देते हैं | कवि चने के पौधे का बेहद जीवंत मानवीकरण करते हुए कहते हैं कि महज एक बीते के बराबर यह हरा चना, जो नाटे कद का है, खेतों में लहलहा रहा है | चने के पौधे के ऊपरी हिस्से पर गुलाबी रंग के जो फूल खिले हैं, वह किसी पगड़ी के समान दिख रहे हैं | मानो ऐसा आभास हो रहा है, जैसे कोई दूल्हा पगड़ी पहनकर सज-धजकर खड़ा है | आगे कवि कहते हैं कि पास में ही चने के पौधे के साथ-साथ अलसी का पौधा भी उगा हुआ है, जो बेहद पतली है | अलसी के पौधे का पतला होना और हवा के झोंके से उसके हिलने की प्रकिया को कवि ने देह की पतली और कमर की लचीली कहके संबोधित किया है | कवि ने बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत पंक्तियों में अलसी के पौधे को नायिका का प्रतिरूप बना दिया है | कवि के अनुसार, अलसी के पौधे के ऊपरी भाग में नीले रंग के फूल खिले हैं, जिसे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो अलसी के पौधे अपने हाथों में फूल लेकर नायिका के रूप में कह रही हों कि जो उसके प्रेम रूपी फूल को लेगा या स्वीकार करेगा, वो उसको अपना दिल दे देंगी अर्थात् उसपर अपने प्रेम को न्योछावर कर देंगी |
(2)- और सरसों की न पूछो-
हो गयी सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं
ब्याह-मंडप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे |
देखता हूँ मैं : स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है
चंद्र गहना से लौटती बेर
चंद्र गहना से लौटती बेर
इस विजन में,
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है |
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि केदारनाथ अग्रवाल जी के द्वारा रचित कविता चंद्र गहना से लौटती बेर से उद्धृत हैं | प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अग्रवाल जी ने खेतों के प्राकृतिक सौंदर्य की तुलना विवाह के मंडप से किया है तथा गाँव की प्राकृतिक सौंदर्य को व्यापारिक शहर की तुलना में ज्यादा बेहतर और मनोरम माना है | कवि कहते हैं कि चने और अलसी के पौधे के बीच, सरसों की तो पूछो ही मत ! वो तो और भी सयानी हो गई है | सरसों पर पीले रंग के फूल के खिलने से ऐसा मालूम पड़ रहा है, जैसे वह हल्दी लगाकर दुल्हन का रूप धारण करके खेत रूपी मंडप में बैठी है | तत्पश्चात्, कवि कहते हैं कि ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे फागुन का महीना स्वयं फाग (होली के गीत) गीत गाता हुआ आ गया हो | कवि आगे कहते हैं कि उक्त मनोरम दृश्य देखकर ऐसा लग रहा है, जैसे स्वयंवर हो रहा है | कवि के मन में भी प्रकृति के प्रति अनुराग की भावना जागृत होने लगती है | कवि को लगता है कि गाँव की हरियाली और मनोहर दृश्य उस नगर से बहुत अच्छा और सौंदर्य से भरा है, जो नगर सिर्फ व्यापार और ऊँची-ऊँची इमारतों का प्रतीक बनकर रह गया है |
(3)- और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वो भी लहरियाँ |
एक चांदी का बड़ा-सा गोल खम्भा
आँख को है चकमकाता |
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुप चाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी !
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि केदारनाथ अग्रवाल जी के द्वारा रचित कविता चंद्र गहना से लौटती बेर से उद्धृत हैं | कवि इन पंक्तियों के माध्यम से कह रहे हैं कि वे जहाँ पर बैठे हुए हैं, वहीं पर से एक पोखर या तालाब भी स्थित है, जिसमें लहर हिलकोरे ले रहे हैं | वहीं बगल में खुले आसमान के नीचे भूरी घास भी उगी हुई है, जो हवा के झोंके से हिल रही है | सूर्य की किरणें जब तालाब के पानी में पड़ती हैं, तो उसका प्रतिबिम्ब पानी पे एक चाँदी के खम्बे के सामान प्रतीत होता है, जो कवि की आँखों में भी चमक रहा है | कवि आगे कहते हैं कि तालाब के किनारे कई पत्थर भी पड़े हैं, जब तालाब की लहरें पत्थरों को भिगोते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है मानो पत्थर भी चुपचाप पानी पी रहे हैं | पर कवि के अनुसार, अब तक उन पत्थरों की प्यास नहीं बुझी है | वे कह रहे हैं कि जाने कब तक उनकी प्यास बुझेगी |
(4)- चुप खड़ा बगुला डुबाये टांग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान-निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले को डालता है !
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में !
औ’ यहीं से --
भूमि ऊंची है जहाँ से --
रेल की पटरी गयी है |
ट्रेन का टाइम नहीं है |
मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ,
जाना नहीं है |
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि केदारनाथ अग्रवाल जी के द्वारा रचित कविता चंद्र गहना से लौटती बेर से उद्धृत हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कह रहे हैं कि तालाब में कुछ बगुले भी हैं, जो दिखने में बिल्कुल शांत और स्थिर लगते हैं, परन्तु ज्यों ही कोई मछली उन्हें पानी में नजर आती है, वे बगुले तुरन्त अपनी चोंच पानी के अंदर डालकर मछली को निगल जाते हैं | कवि आगे कहते हैं कि एक सफेद पंखों वाली चिड़िया, जिसका माथा या सिर काले रंग का होता है, वह तालाब के ऊपर से मंडराते हुए तालाब के पानी में एकाग्रतापूर्वक ध्यान रखती है | जैसे ही उसे कोई मछली नजर आती है, वह फौरन टूट पड़ती है मछली पर और अपने पीले रंग के चोंच में दबाकर खुले आसमान की तरफ़ उड़ान भर लेती है | तत्पश्चात्, कवि कहते हैं कि मैं जहाँ पर हूँ, वहीं से भूमि ऊँची उठी है अर्थात् कवि का तातकालिन स्थान ऊँचाई पर स्थित है | वहीं पर से रेल की पटरी गुजरी है, जहाँ पर कवि ट्रेन का इंतजार कर रहे हैं | किन्तु, अभी ट्रेन आने का समय नहीं हुआ है | आगे कवि कहते हैं कि ट्रेन के देरी होने पर मुझे कोई अफसोस नहीं है, कवि वहाँ बिल्कुल स्वतंत्र हैं | वे प्राकृतिक सुंदरता और मनोरम दृश्य का मजा ले रहे हैं | जबकि शहरी इलाकों में ऐसी हरियाली का अभाव पाया जाता है |
(5)- चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं |
बाँझ भूमि पर
इधर उधर रीवां के पेड़
कांटेदार कुरूप खड़े हैं |
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि केदारनाथ अग्रवाल जी के द्वारा रचित कविता 'चंद्र गहना से लौटती बेर' से उद्धृत हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि चित्रकूट की पहाड़ियाँ, जो थोड़ी चौड़ी और ऊँची है, वो दूर तक फैली हैं | कवि आगे कहते हैं कि उन पहाड़ियों के बंजर भूमि पर केवल रीवां नामक कंटीले और भयानक दिखने वाले पेड़ लगे हुए हैं |
(6)- सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टें टें;
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता
सारस का स्वर
टिरटों टिरटों;
मन होता है-
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाए सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में,
सच्ची-प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे-चुप्पे |
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि केदारनाथ अग्रवाल जी के द्वारा रचित कविता चंद्र गहना से लौटती बेर से उद्धृत हैं | कवि उस प्राकृतिक वातावरण में गूंजती तोते और सारसों की मीठी आवाज़ से प्रभावित हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि जब वनस्थली में तोते का स्वर गूँजता है "टें टें टें टें" , तो वे आनंदित हो उठते हैं | वे तोते के मीठे रस भरे ध्वनियों का हिस्सा बनने को व्याकुल हो उठते हैं | कवि आगे कह रहे हैं कि जब उस वनस्थली में सारस का स्वर गूँजता है "टिरटों टिरटों" , तब वास्तव में मेरा मन करता है कि मैं भी पंख फैलाकर सारस के संग उड़ जाऊँ और उस हरे-भरे खेत में पहुँच जाऊँ, जहाँ सारसों की जोड़ी प्रेम के गीत गा रहे हों | वहीं कहीं छुप-छुपकर सारसों की प्रेम कहानी सुन लूँ | अत: कवि को उस प्राकृतिक वातावरण और वहाँ पर प्रकृति के बेहतरीन कृतियों से लगाव हो गया था, जिसे छोड़कर आगे बढ़ना उन्हें कतई मंजूर नहीं था |
चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का सारांश
प्रस्तुत पाठ या कविता चंद्र गहना से लौटती बेर कवि केदारनाथ अग्रवाल जी के द्वारा रचित है | कवि अग्रवाल जी ने इस कविता में प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत चित्रण किया है तथा उनका इस कविता में प्रकृति के प्रति गहरा प्रेम प्रकट हुआ है | वे चंद्र गहना नामक जगह से लौट रहे हैं | चुँकि स्वभाव से वे किसान-पुत्र हैं, इसलिए उनका किसान मन खेत-खलिहान एवं प्राकृतिक वातावरण के प्रति आकर्षित हो जाता है | प्रस्तुत कविता में कवि केदारनाथ अग्रवाल जी की उस सृजनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति उजागर हुई है, जो साधारण चीजों में भी असाधारण सौंदर्य देखने और व्यक्त करने में सफल है | इस प्राकृतिक सौंदर्य बोध कविता में प्रकृति और संस्कृति की एकता व्यक्त हुई है, जो स्वयं में अनुपम, अद्भुत और मनोरम है.
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