कविताओं का प्रतिपादय एवं सार
आत्मपरिचय
प्रतिपादय-कवि का मानना है कि स्वयं को जानना दुनिया को जानने से ज्यादा कठिन है। समाज से व्यक्ति का नाता खट्टा-मीठा तो होता ही है। संसार से पूरी तरह निरपेक्ष रहना संभव नहीं। दुनिया अपने व्यंग्य-बाण तथा शासन-प्रशासन से चाहे जितना कष्ट दे, पर दुनिया से कटकर मनुष्य रह भी नहीं पाता। क्योंकि उसकी अपनी अस्मिता, अपनी पहचान का उत्स, उसका परिवेश ही उसकी दुनिया है।
कवि अपना परिचय देते हुए लगातार दुनिया से अपने द्रविधात्मक और द्वंद्वात्मक संबंधों का मर्म उद्घाटित करता चलता है। वह पूरी कविता का सार एक पंक्ति में कह देता है कि दुनिया से मेरा संबंध प्रीतिकलह का है, मेरा जीवन विरुद्धों का सृामंजस्य है- उन्मादों में अवसाद, रोदन में राग, शीतल वाणी में आग, विरुद्धों का विरोधाभासमूलक सामंजस्य साधते-साधते ही वह बेखुदी, वह मस्ती, वह दीवानगी व्यक्तित्व में उत्तर आई है कि दुनिया का तलबगार नहीं हूँ। बाजार से गुजरा हूँ, खरीदार नहीं हूँ-जैसा कुछ कहने का ठस्सा पैदा हुआ है। यह ठस्सा ही छायावादोत्तर गीतिकाव्य का प्राण है।
किसी असंभव आदर्श की तलाश में सारी दुनियादारी ठुकराकर उस भाव से कि जैसे दुनिया से इन्हें कोई वास्ता ही नहीं है। सार-कवि कहता है कि यद्यपि वह सांसारिक कठिनाइयों से जूझ रहा है, फिर भी वह इस जीवन से प्यार करता है। वह अपनी आशाओं और निराशाओं से संतुष्ट है। वह संसार से मिले प्रेम व स्नेह की परवाह नहीं करता क्योंकि संसार उन्हीं लोगों की जयकार करता है जो उसकी इच्छानुसार व्यवहार करते हैं। वह अपनी धुन में रहने वाला व्यक्ति है। वह निरर्थक कल्पनाओं में विश्वास नहीं रखता क्योंकि यह संसार कभी भी किसी की इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर पाया है। कवि सुख-दुख, यश-अपयश, हानि-लाभ आदि द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में एक जैसा रहता है। यह संसार मिथ्या है, अत: यहाँ स्थायी वस्तु की कामना करना व्यर्थ है।
कवि संतोषी प्रवृत्ति का है। वह अपनी वाणी के जरिये अपना आक्रोश व्यक्त करता है। उसकी व्यथा शब्दों के माध्यम से प्रकट होती है तो संसार उसे गाना मानता है। संसार उसे कवि कहता है, परंतु वह स्वयं को नया दीवाना मानता है। वह संसार को अपने गीतों, द्वंद्वों के माध्यम से प्रसन्न करने का प्रयास करता है। कवि सभी को सामंजस्य बनाए रखने के लिए कहता है।
एक गीत
प्रतिपादय-निशा-निमंत्रण से उद्धृत इस गीत में कवि प्रकृति की दैनिक परिवर्तनशीलता के संदर्भ में प्राणी-वर्ग के धड़कते हृदय को सुनने की काव्यात्मक कोशिश व्यक्त करता है। किसी प्रिय आलंबन या विषय से भावी साक्षात्कार का आश्वासन ही हमारे प्रयास के पगों की गति में चंचल तेजी भर सकता है-अन्यथा हम शिथिलता और फिर जड़ता को प्राप्त होने के अभिशिप्त हो जाते हैं। यह गीत इस बड़े सत्य के साथ समय के गुजरते जाने के एहसास में लक्ष्य-प्राप्ति के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा भी लिए हुए है।
सार-कवि कहता है कि साँझ घिरते ही पथिक लक्ष्य की ओर तेजी से कदम बढ़ाने लगता है। उसे रास्ते में रात होने का भय होता है। जीवन-पथ पर चलते हुए व्यक्ति जब अपने लक्ष्य के निकट होता है तो उसकी उत्सुकता और बढ़ जाती है। पक्षी भी बच्चों की चिंता करके तेजी से पंख फड़फड़ाने लगते हैं। अपनी संतान से मिलने की चाह में हर प्राणी आतुर हो जाता है। आशा व्यक्ति के जीवन में नई चेतना भर देती है। जिनके जीवन में कोई आशा नहीं होती, वे शिथिल हो जाते हैं। उनका जीवन नीरस हो जाता है। उनके भीतर उत्साह समाप्त हो जाता है। अत: रात जीवन में निराशा नहीं, अपितु आशा का संचार भी करती है
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