Saturday, November 28, 2020

Apu Ke Sath Dhai Saal MCQ अप्पू के साथ ढाई साल MCQ Class 11 Hindi Aaroh Chapter 3

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अपू के साथ ढाई साल पाठ का सारांश  

अपू के साथ ढाई साल नामक संस्मरण पथेर पांचाली फ़िल्म के अनुभवों से संबंधित है, जिसका निर्माण भारतीय फ़िल्म के इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना के रूप में दर्ज है। इससे फ़िल्म के सृजन और उसके व्याकरण से संबंधित कई बारीकियों का पता चलता है। इस फ़िल्म के लेखक सत्यजीत राय हैं जो फ़िल्म पथेर पांचाली के निर्देशक भी हैं। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार पहली फ़िल्म एक फिल्मकार की अबूझ पहेली होती है और फ़िल्म रचना का वक्त कैसे एक फ़िल्मकार के लिए रोमांचकारी होता है। 

लेखक बताते हिं कि, पथेर पांचाली फ़िल्म को पूरा करने में ढाई साल लग गए थे। वैसे इस ढाई साल के कालखंड में हर दिन शूटिंग नहीं होती थी। वे उस वक्त एक विज्ञापन कंपनी में नौकरी किया करते थे। नौकरी से जब वक्त मिलता, तब वे शूटिंग का काम किया करते थे। उनके पास उस वक्त पर्याप्त पैसे भी नहीं थे। पैसे आने तक शूटिंग के काम को, उनको स्थगित करना पड़ता था।

फ़िल्म में अपू और दुर्गा की मुख्य भूमिका थी, पर अपू की भूमिका निभाने के लिए कोई छह साल का लड़का मिल ही नहीं रहा था। आखिरकार पड़ोस में रहने वाला लड़का, सुबीर बनर्जी ही पथेर पांचाली में ' अपू ' बना। फ़िल्म का काम और ढाई साल चलने वाला है, यह बात वे नहीं जानते थे। जैसे जैसे समय बीत रहा था उन्हें डर लग रहा था, कि इस समय में इन बच्चों की अगर उम्र बढ़ेगी, तो वह फ़िल्म में दिखाई देगा। मगर इसमें लेखक भाग्यशाली निकले, इस उम्र में बच्चे जितना बढ़ते हैं अपू और दुर्गा की भूमिका निभाने वाले बच्चे नहीं बढ़े।

आगे लेखक बताते हैं, कि कैसे फ़िल्म के शुरुआत में ही एक गड़बड़ हो गई। अपू और दुर्गा को लेकर वे कलकत्ता से कुछ दूर पालसिट नाम के एक गांव गए। शूटिंग थोड़ी बड़ी थी, एक दिन में संभव नहीं था। इसलिए एक दिन की शूटिंग करके जिसमें अपू, दुर्गा के पीछे - पीछे दौड़ता हुआ काशफुलों के वन में पहुंचता है, करके चले गए। सात दिन बाद आधी शूटिंग करने जब वापस उसी जगह आते हैं, तो उस जगह को वे पहचान नहीं पाते हैं, इन सात दिनों में जानवरों ने सारे काशफुल खा डाले थे। अब अगर इसी जगह शूटिंग पूरी करते तो बाकी आधे सीन के साथ मेल नहीं खाता। इसके लिए उन्हें एक साल तक इंतज़ार करना पड़ा। उसी वक्त उन्हें रेलगाड़ी के भी कई शॉट्स लेने थे। जिसमे उन्हें एक रेलगाड़ी से काम ना चला और तीन रेलगाड़ियों का उपयोग करना पड़ा पर वह फ़िल्म देखकर बिल्कुल भी नहीं लगता था कि वो अलग- अलग रेलगाड़ियां हैं। इस तरह के कई कठिनाइयों का सामना लेखक को करना पड़ा।

लेखक अपनी एक और परेशानी के बारे में बताते हुए कहते हैं कि -  जब उन्हें एक गांव के कुत्ते के साथ शूटिंग करनी थी, तो आधी शूटिंग के बाद जब सारे पैसे खत्म हो गए, तो काम को कुछ समय के लिए रोक दिया गया। और जब पैसे इकट्ठा हुए तब तक छह महीने बीत गए थे। जब वे वापस शूटिंग पूरी करने उस गांव में आए तो पता


चला, उस कुत्ते की मौत हो गई है। जब खबर मिली कि उसी की तरह दिखने वाला एक और कुत्ता है, तब उस कुत्ते को पकड़ कर लाए तो देखते हैं कि वो बिल्कुल उसी कुत्ते जैसा दिखता है, तब जाकर शूटिंग पूरी की गई। इसी तरह की समस्या एक बार और आ खड़ी हुई पर इस बार एक इंसान के साथ हुई, आधी शूटिंग के बाद उसकी मृत्यु हो जाती है। इस बार फिरसे मिलता- जुलता इंसान ढूंढने की कवायद चालू हो जाती है, हूबहू दिखने वाला मिलना तो मुश्किल ही था पर एक उसी के शरीर का इंसान था, बाकी की शूटिंग उसके साथ ही की गई जिसमें वह पीठ दिखाता हुआ जाता है। इसमें भी लोग कभी पहचान नहीं पाए कि वह एक ही इंसान नहीं है।

आगे लेखक बताते हैं, कि कैसे वे एक दिन भूलो कुत्ते की वजह से एक शॉट लेने में परेशान हो गए, जब भूलो को दुर्गा और अपू के पीछे भागना था, पर वह इतना ज्यादा सीखा - सिखाया तो था नहीं की, उनके बोलने पर वह उनके पीछे भागे। तो फिर लेखक ने एक तरकीब लगाई और दुर्गा को हाथ में थोड़ी मिठाई ले कर भागने को कहा, तब जाकर वह उन दोनों के पीछे भागा और शॉट पूरा हुआ।  एक बार उन्हें बारिश का दृश्य शूट करना था, पर बारिश के मौसम में उनके पास पैसे नहीं थे। जब पैसे आए तब तक बारिश का मौसम जा चुका था। बारिश होगी इस आशा से अपु और दुर्गा की भूमिका करने वाले बच्चे, कैमरा और तकनीशियन को साथ लेकर हर रोज देहात में जाकर  बैठे रहते थे। एक दिन धुंआधार बारिश हुई उसी बारिश में भीगकर, दुर्गा भागती हुई आई और उसने पेड़ के नीचे अपने भाई के पास आसरा लिया और शूट पूरा हुआ।

आगे लेखक बताते हैं कि कैसे एक गांव में उन्हें शूटिंग के लिए कई बार जाना पड़ा और कई बार वहां रुकना भी पड़ा। वहां के लोगों से उनका परिचय हो गया। वहां उनकी मुलाकात एक अद्भुत सज्जन पुरुष से हुई, जिन्हें वे सुबोध दा कहकर पुकारते थे। वे मानसिक रूप से बीमार थे। लेखक बताते हैं कि सुबोध दा से उन लोगों का अच्छा परिचय हो गया और सुबोध दा उन लोगों को वायलिन पर लोकगीतों की धुन बजाकर सुनाया करते थे।

लेखक बताते हैं, कि जिस घर में वे पाथेर पांचाली की शूटिंग करते थे वह घर बिल्कुल ध्वस्त था। उसके मालिक कलकत्ता में रहते थे। उस घर को उन्होंने भाड़े पर दिया था। उस घर को बनवा कर शूटिंग के लायक बनाने में ही उन लोगों को एक महीने लग गए। एक दिन शूटिंग के दौरान एक कमरे से सांप निकला, जिसे मार डालने की ईच्छा होने पर भी स्थानीय लोगों के मना करने पर उसे वे मार नहीं सके क्योंकि वह वास्तु सर्प था और बहुत दिनों से वहां रह रहा था…|| 


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