Wednesday, December 9, 2020

Vaakh MCQ वाख MCQ Questions for Class 9 Hindi Kshitij Chapter 10

Vaakh MCQ वाख MCQ Questions for Class 9 Hindi Kshitij Chapter 10
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ललद्यद के वाख का भावार्थ

(1) रस्सी कच्चे धागे की खींच रही मैं नाव | 
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार | 
पानी टपके कच्चे सकोरे , व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे | 
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे ||  

भावार्थ - उक्त पंक्तियाँ कवयित्री 'ललद्यद' जी के 'वाख' से उद्धृत हैं | कवयित्री इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहती हैं कि उनका जीवन रूपी जो नाव है, वह उसे साँस रूपी कच्चे डोर से खींच रही हैं | वह ईश्वर से यह आस लगाए बैठी हैं कि कब ईश्वर उनका पुकार सुन ले और संसार रूपी भवसागर से मुक्ति दिला दे | आगे वह कहती हैं कि मिट्टी रूपी जो कच्चा शरीर है मेरा, उससे निरन्तर पानी का टपकना जारी है | अर्थात् कवयित्री का कहना है कि हरदिन उनका आयु कम होता जा रहा है | उनकी ईश्वर से मिलने की सारी कोशिशें असफल होती जा रही हैं | कवयित्री के अंतःकरण में व्याकुलता बढ़ती ही जा रही है | वह ईश्वर से मिलने या उसके सानिध्य में जाने की तीव्र चाह से घिरी हुई हैं | 

(2) खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी | 
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की | 

भावार्थ  - उक्त पंक्तियाँ कवयित्री 'ललद्यद' जी के 'वाख' से उद्धृत हैं | कवयित्री इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहती हैं कि यदि मनुष्य अपने जीवन में सिर्फ उपभोग करने की लालसा रखेगा, तो वह कुछ हासिल नहीं कर सकेगा और यदि सारे भोग-उपभोग का त्याग करके त्यागी बन जाएगा, अर्थात् स्वार्थमय जीवन जीने लगेगा, तो वह अहंकारी बन जाएगा | इस प्रकार वह अपने पतन की ओर अग्रसर हो जाएगा | आगे कवयित्री अपनी बातों को प्रमुखता से कहती हैं कि मनुष्य को अपने जीवन में संतुलन बनाए रखना चाहिए | न उसे ज्यादा भोग करना चाहिए और न ही ज्यादा त्याग करने का प्रयत्न करना चाहिए | तभी वह समभावी बन सकेगा | तत्पश्चात्, हममें व्यापक चेतना जागृत होगी, मन सारे आडंबरयुक्त बंधनों से मुक्त हो सकेगा तथा हमारे हृदय में उदारता की भावना जागृत होगी |  

(3) आई सीधी राह से ,गई न सीधी राह | 
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह !
जेब टटोली, कौड़ी ना पाई | 
माझी को दूँ, क्या उतराई ? 



भावार्थ - उक्त पंक्तियाँ कवयित्री 'ललद्यद' जी के 'वाख' से उद्धृत हैं | कवयित्री इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहती हैं कि मुझे पश्चाताप हो रहा है कि मैं जीवन भर असत्य मार्ग पर चलते हुए ईश्वर को तलाश की | अर्थात् भक्ति मार्ग को त्यागकर हठयोग का सहारा लेकर अपने और ईश्वर के मध्य सेतु का निर्माण करना चाहती थी | परन्तु, मैं निरन्तर अपने इस प्रयास में असफल होती रही और शनै-शनै मेरी उम्र घटती रही | आगे कवयित्री कहती हैं कि जब मैंने अपने जीवन का हिसाब-किताब किया, तो पाया कि मैंने कोई ऐसा पुण्य काम ही नहीं किया है, जिसे मैं मृत्यु पश्चात् ईश्वर को दिखा सकूँ | मैंने तो पूरा जीवन हठयोग में व्यतीत कर दिया है | यदि मेरे जीवन का माझी रूपी ईश्वर मुझसे उतराई के रूप में मेरा पुण्य कर्म माँगेगे, तो मैं उसे क्या दूँगी | इस बात का कवयित्री को बेहद अफ़सोस है | क्योंकि जो समय एक बार बीत जाता है, वह दुबारा लौटकर नहीं आता | 

(4) थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां | 
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान ||

भावार्थ - उक्त पंक्तियाँ कवयित्री 'ललद्यद' जी के 'वाख' से उद्धृत हैं | कवयित्री इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहती हैं कि शिव अर्थात् ईश्वर हर जगह व्याप्त है | वह तो कण-कण में उपस्थित है | कवयित्री धर्म रूपी आडंबर का खंडन करते हुए कहती हैं कि ये हिंदू-मुसलमां के चक्कर में मत पड़ो, ईश्वर के लिए सभी एक हैं | यदि तुम ज्ञानी हो, तो सर्वप्रथम स्वयं को पहचानने की कोशिश करो | केवल यही तरीका तुम्हें ईश्वर के समीप ले जाएगा | 


ललद्यद के वाख पाठ कासारांश / मूल भाव 


प्रस्तुत पाठ में कवयित्री 'ललद्यद' के 'वाख' को संकलित किया गया है | इस पाठ में कवयित्री के चार वाखों का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है | 

ललद्यद के प्रथम वाख में ईश्वर प्राप्ति हेतु किए जाने वाले प्रयासों की व्यर्थता का उल्लेख है | दूसरे वाख में बाह्याडांबरों के विरोध में कहा गया है कि अंतःकरण से समभावी होने के पश्चात् ही मनुष्य की चेतना व्यापक या विस्तृत हो सकती है | तीसरे वाख में कवयित्री यह अनुभव करती हैं कि भवसागर से पार जाने के लिए सच्चे कर्म ही सहायक सिद्ध होते हैं | चौथे वाख में ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध और भेदभाव के विपरीत चेतना का उल्लेख है | अत: कवयित्री ललद्यद ने आत्मज्ञान को ही सत्य ज्ञान के रूप में स्वीकार किया है...|| 


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