Monday, November 30, 2020

Kabir Ke Pad MCQ कबीर के पद MCQ Class 11 Hindi Aaroh Chapter 11

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कबीर के पद पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ या पद कबीर जी के द्वारा रचित है, जो पद जयदेव सिंह और वासुदेव सिंह के द्वारा संकलित एवं सम्पादित कबीर वाङ्मय - खंड 2 (सबद) से लिए गए हैं | कबीर जी ने अपने पहले पद में कण-कण में परमात्मा के अस्तित्व की बात कही है तथा परमात्मा को ज्योति रूप में स्वीकारा है | परमात्मा की व्याप्ति को अद्वैत सत्ता के रूप में देखते हुए विभिन्न उदाहरणों के द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति दी है | अपने दूसरे पद में कबीर जी ने बाह्याडंबरों पर प्रहार किया है | उनके अनुसार ज्यादातर लोग अपने अंदर की शक्ति को न पहचानकर अनजाने में अवास्तविक संसार से रिश्ता बना बैठते हैं और वास्तविक संसार से बेखबर रहते हैं | 

कबीर के पद की व्याख्या

हम तौ एक एक करि जांनां | 
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां || 
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां | 
एकै खाक गढ़े सब भांड़ै एकै काेंहरा सांनां || 
जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटे कोई | 
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई ||
माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां |
निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां || 

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कबीर जी के द्वारा रचित है, जो पद जयदेव सिंह और वासुदेव सिंह के द्वारा संकलित एवं सम्पादित कबीर वाङ्मय -- खंड 2 (सबद) से लिए गए हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कबीर ने उस परमात्मा को जानने की बात कही है, जिसने पूरी सृष्टि को रचा है, जो एक है | कबीर के अनुसार, वह परमात्मा इसी संसार में व्याप्त है | कबीर जी कहते हैं कि जो लोग परमात्मा से अनभिज्ञ हैं, वे लोग ही इस संसार और परमात्मा के अस्तित्व को अलग-अलग रूपों में देखते हैं | कबीर के अनुसार, सम्पूर्ण संसार के कण-कण में एक ही परमात्मा की ज्योति विद्यमान है | आगे कबीर जी ने कुम्हार की तुलना परमात्मा से करते हुए कहते हैं कि जिस तरह कुम्हार एक ही मिट्टी को अलग-अलग आकार व रूप के बर्तनों में गढ़ता है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर या परमात्मा ने भी एक ही तत्व से हम मनुष्यों को अलग-अलग रूपों में ढाला है | जिस प्रकार बढ़ई लकड़ी को काट सकता है, किन्तु उसमें मौजूद अग्नि को खत्म नहीं कर सकता | ठीक उसी तरह शरीर के मरने के पश्चात् भी आत्मा अमर हो जाया करती है | आगे कबीर जी कहते हैं कि संसार का मायावी रूप-सज्जा लोगों को अपने वश में कर लिया है | लोग संसार की झूठी माया पर गर्व करते नहीं थकते | कबीर जी अपनी बातों पर जोर देते हुए दीवानों की तरह परमात्मा भक्ति में लीन होकर सांसारिक मोह-माया से मुक्त होने की बात करते हैं | उनका मानना है कि जो लोग इस मोह-माया के बंधन से मुक्त हो जाते है, अर्थात् आडंबरयुक्त जीवन से छुटकारा पा लेते हैं, उन्हें किसी प्रकार का कोई भय नहीं रहता | 

(2)- सतों देखत जग बौराना |   
साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना || 
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना | 
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना ||  
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना | 
कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना ||  
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना | 
पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना ||  
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना | 
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना ||  
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना |  
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना ||  
घर घर मन्तर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना | 
गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना || 
कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना | 
केतिक कहौं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना ||   

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कबीर जी के द्वारा रचित है, जो पद जयदेव सिंह और वासुदेव सिंह के द्वारा संकलित एवं सम्पादित "कबीर वाङ्मय -- खंड 2 (सबद) से लिए गए हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कबीर जी ने संसार के लोगों की तरफ़ इशारा करते हुए कहते हैं कि वे पागल हो गए हैं | उनका दिमाग सही और गलत में अंतर करने लायक नहीं है | उनके सामने सच बात कहो, तो वे गुस्सा होकर मारने दौड़ाते हैं और झूठ बात कहो, तो विश्वास कर लेते हैं | आगे कबीर जी कहते हैं कि वे इस संसार में ऐसे साधु-संतों को भी देखे हैं, जो केवल धर्म के नाम पर व्रत और नियमों का कठोरता से पालन करते हैं | वे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनना छोड़कर, सिर्फ बाह्याडंबरों का ढोंग रचते रहते हैं | 

कबीर जी कहते हैं कि संसार में ऐसे कई पीर-पैगंबर भी हैं, जो केवल धार्मिक पुस्तकों को पढ़कर खुद को ज्ञानी


या बुद्धिमान समझते रहते हैं | वे अपने शागिर्दों (शिष्यों) को भी परमात्मा की प्राप्ति या मोक्ष की प्राप्ति का उपाय बताते रहते हैं, जबकि वे ख़ुद ही इस ज्ञान से अनभिज्ञ रहते हैं | आगे कबीर जी कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सिर्फ आसन-समाधि लगाकर बैठे रहते हैं तथा खुद को ईश्वर या परमात्मा का सच्चा साधक बताकर अहंकार में डूबे रहते हैं | कबीर जी की नज़र में पत्थर की मूर्ति और वृक्षों की उपासना करना, तीर्थ यात्रा जैसे कार्यों में भाग लेना, ये सब व्यर्थ की बातें हैं | जो लोग गले में माला, टोपी और माथे पर तिलक लगाते हैं, वे केवल दिखावा करते हैं | वे ख़ुद परमात्मा के ज्ञान से अनभिज्ञ हैं, परन्तु दूसरों को ज्ञान बाँटने में कोई कमी नहीं करते हैं | आगे कबीर जी कहते हैं कि हिन्दू राम को और मुसलमान रहीम को श्रेष्ठ मानकर या बताकर धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं | जबकि दोनों ही मूर्ख हैं, क्योंकि दोनों को ही ईश्वर या परमात्मा के अस्तित्व का मर्म नहीं मालूम | आगे कबीर जी कहते हैं कि जो गुरू अज्ञानी हैं और दिखावेपन का ढोंग करते हैं, उनके शिष्य भी उनके शरण में रहकर उनके जैसा ही आडंबरयुक्त जीवन जीने लगते हैं तथा मोह-माया के जाल में फँस कर रह जाते हैं | कबीर जी कहते हैं कि जिन्हें परमात्मा का कोई ज्ञान नहीं होता, वैसे लोग ही अपने शिष्यों को आधा-अधूरा ज्ञान बाँटते रहते हैं | अत: कबीर जी का मानना है कि सच्चे परमात्मा की प्राप्ति सहजता और सरलता से सम्भव है, दिखावे और ढोंग ईश्वर को नहीं पाया जा सकता |
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