Sunday, November 22, 2020

Shram Vibhajan aur Jati pratha MCQ श्रम विभाजन और जाति प्रथा MCQ Class 12 Hindi Aroh Chapter 18

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पाठ का प्रतिपादय एवं सारांश



1. श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा

प्रतिपादय-यह पाठ आंबेडकर के विख्यात भाषण ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट'(1936) पर आधारित है। इसका अनुवाद ललई सिंह यादव ने ‘जाति-भेद का उच्छेद’ शीर्षक के अंतर्गत किया। यह भाषण ‘जाति-पाँति तोड़क मंडल’ (लाहौर) के वार्षिक सम्मेलन (1936) के अध्यक्षीय भाषण के रूप में तैयार किया गया था, परंतु इसकी क्रांतिकारी दृष्टि से आयोजकों की पूर्ण सहमति न बन सकने के कारण सम्मेलन स्थगित हो गया। सारांश-लेखक कहता है कि आज के युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। समर्थक कहते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक मानता है। इसमें आपत्ति यह है कि जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिए हुए है।

श्रम-विभाजन सभ्य समाज की आवश्यकता हो सकती है, परंतु यह श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा श्रमिकों के अस्वाभाविक विभाजन के साथ-साथ विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है। जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए तो यह भी मानव की रुचि पर आधारित नहीं है। सक्षम समाज को चाहिए कि वह लोगों को अपनी रुचि का पेशा करने के लिए सक्षम बनाए। जाति-प्रथा में यह दोष है कि इसमें मनुष्य का पेशा उसके प्रशिक्षण या उसकी निजी क्षमता के आधार पर न करके उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर से किया जाता है। यह मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध देती है। ऐसी दशा में उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में परिवर्तन से भूखों मरने की नौबत आ जाती है। हिंदू धर्म में पेशा बदलने की अनुमति न होने के कारण कई बार बेरोजगारी की समस्या उभर आती है।

जाति-प्रथा का श्रम-विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। इसमें व्यक्तिगत रुचि व भावना का कोई स्थान नहीं होता। पूर्व लेख ही इसका आधार है। ऐसी स्थिति में लोग काम में अरुचि दिखाते हैं। अत: आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक है क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्म-शक्ति को दबाकर उन्हें स्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।


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